Thursday, August 14, 2025
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जिसको लूटने नहीं दिया, उसने झंडा उठा लिया, इकबाल सिंह का दोहरा चरित्र

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चंडीगढ़  (ऑफिस ब्यूरो)- राजनीति का इतिहास ऐसे किरदारों से भरा पड़ा है जो अपने निजी स्वार्थ सिद्ध न होने पर उस घर को ही जलाने पर आमादा हो जाते हैं, जहाँ उन्होंने कभी आसरा पाया था। इकबाल सिंह उसी श्रेणी का एक चेहरा है, जो आम आदमी पार्टी की नीतियों, मूल्यों और ईमानदार राजनीति की धारणा को तब तक सर आँखों पर बिठाए रहा, जब तक उसे निजी लाभ मिलते रहे। लेकिन जैसे ही भ्रष्टाचार के लिए रास्ता बंद हुआ, उसने वही पार्टी बदनाम करने की मुहिम छेड़ दी, जिसने उसे पहचान और जिम्मेदारी दी थी।

इकबाल सिंह को आम आदमी पार्टी ने एक ऐसे समय में अपनाया, जब पार्टी ईमानदार और कर्मठ चेहरों की खोज में थी। उसे एक जिम्मेदार स्थान दिया गया, उसके विचारों को सुना गया और उसकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को सम्मान मिला। लेकिन जल्द ही यह स्पष्ट हो गया कि इकबाल सिंह की प्राथमिकता जनसेवा नहीं, बल्कि निजी स्वार्थ थी। जब पार्टी ने उसके किसी गलत कार्य को मंज़ूरी नहीं दी, तो उसका असली चेहरा सामने आने लगा।

जिस आम आदमी पार्टी ने साल 2024 में इकबाल सिंह को खादी बोर्ड का सदस्य बनाया, अब अब वही इकबाल सिंह, विरोधी दलों के इशारों पर चलकर पार्टी को बदनाम करने में जुटा है। जिन नीतियों का वह कभी समर्थन करता था, अब उन्हीं पर सवाल उठा रहा है। यह कोई वैचारिक असहमति नहीं है, यह तो मात्र एक तिलमिलाया हुआ आत्मघाती विद्रोह है, जो सत्ता का स्वाद ना चख पाने की छटपटाहट में पनपा है।

विरोधी राजनीतिक दलों के लिए इकबाल सिंह जैसे असंतुष्ट चेहरे ‘मुफ्त के हथियार’ होते हैं। इन चेहरों को प्रायोजित करके, इनसे साजिशें रचवाई जाती हैं और फिर मीडिया में झूठी कहानियाँ फैलाई जाती हैं। लेकिन जनता मूर्ख नहीं है। वह जानती है कि कौन-सा चेहरा कब और क्यों बदला है।

इकबाल सिंह को यह समझ लेना चाहिए कि ईमानदार राजनीति में जगह पाने का मतलब यह नहीं कि कोई भी मनमानी की जाए। आम आदमी पार्टी में स्थान पाना एक जिम्मेदारी है, न कि अवसरवादिता का मंच। अगर वह पार्टी की ईमानदार प्रणाली से मेल नहीं खा सका, तो यह उसकी वैचारिक कमजोरी है, पार्टी की नहीं।

आज जब वह झूठे आरोप लगाकर खुद को सही ठहराने की कोशिश करता है, तब उसकी मंशा खुद-ब-खुद उजागर हो जाती है। जिसको लूटने नहीं दिया गया, उसने झंडा उठा लिया—यह सिर्फ एक वाक्य नहीं, बल्कि उस मानसिकता का बयान है जो सत्ता को जनसेवा नहीं, बल्कि निजी लाभ का साधन मानती है।

जनता ऐसे चेहरों को पहचानती है, और समय पर उन्हें जवाब भी देती है। क्योंकि सत्य को बदनाम करने की कोशिशें देर-सवेर खुद बेनकाब हो जाया करती हैं।

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