पंजाब और हरियाणा के बीच लंबे समय से चले आ रहे जल विवाद में पंजाब को न्यायिक प्रक्रिया के पहले पड़ाव पर जीत मिली है।
पंजाब एवं हरियाणा हाई कोर्ट द्वारा हरियाणा सरकार, बीबीएमबी और केंद्र को नोटिस जारी किया जाना केवल एक औपचारिक प्रक्रिया नहीं, बल्कि पंजाब की दलीलों को गंभीरता से सुनने की दिशा में पहला न्यायिक संकेत है।
यह घटनाक्रम दर्शाता है कि जल वितरण से जुड़े मामलों में पारदर्शिता और विधिक प्रक्रिया का पालन अनिवार्य है। पंजाब द्वारा यह तर्क दिया जाना कि केंद्र की 2 मई की बैठक में तथ्यों को अधूरा या भ्रामक रूप में प्रस्तुत किया गया, यदि सही पाया जाता है, तो इससे न्याय व्यवस्था की विश्वसनीयता और संघीय ढांचे की मजबूती दोनों को बल मिलेगा।
इस नोटिस को पंजाब की “पहली जीत” कहना अनुचित नहीं होगा, क्योंकि यह दर्शाता है कि राज्य की आपत्तियों को दरकिनार नहीं किया जा सकता। आगे की सुनवाई में यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि क्या अदालत जल वितरण जैसे गंभीर विषय पर केंद्र और संबंधित पक्षों से जवाबदेही तय कर पाती है।
यह संकेत है कि पंजाब के जल अधिकारों की रक्षा की दिशा में एक न्यायिक चेतना जागृत हुई है और यह केवल शुरुआत है।
पंजाब सरकार द्वारा पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट में बी.बी.एम.बी. (भाखड़ा ब्यास मैनेजमेंट बोर्ड) से जुड़ी 6 मई के आदेश की समीक्षा अथवा संशोधन की मांग, एक गंभीर और न्यायपूर्ण प्रयास है जो राज्य के जल अधिकारों की रक्षा के लिए उठाया गया है। हाईकोर्ट की खंडपीठ द्वारा केंद्र सरकार, हरियाणा तथा बी.बी.एम.बी. से जवाब मांगा जाना इस दिशा में एक सकारात्मक कदम है।
यह मामला केवल जल-वितरण का तकनीकी विवाद नहीं है, बल्कि इसमें केंद्र द्वारा राज्यों के अधिकारों की अवहेलना का भी संकेत है। 6 मई के आदेश में पंजाब को उस बैठक के निर्णयों का पालन करने का निर्देश दिया गया था, जो केंद्र सरकार के गृह सचिव की अध्यक्षता में 2 मई को बुलाई गई थी। पंजाब का तर्क है कि न केवल इस बैठक की कार्यसूची स्पष्ट नहीं थी, बल्कि बैठक का एजेंडा “हरियाणा को 4,500 क्यूसेक अतिरिक्त पानी देने” पर केंद्रित था, न कि जल-वितरण के किसी स्थायी समाधान पर।
और इससे भी अधिक चिंताजनक बात यह है कि बैठक की कार्यवाही की प्रतिलिपि 9 मई से पहले संबंधित राज्यों के साथ साझा नहीं की गई थी। ऐसे में कोर्ट को 6 मई को जो जानकारी दी गई, वह अपूर्ण और भ्रामक थी। जब स्वयं केंद्र सरकार का यह कहना है कि गृह सचिव इस विषय में निर्णय लेने के सक्षम अधिकारी नहीं हैं, तो उस बैठक के आधार पर पंजाब पर किसी भी तरह का कानूनी दायित्व नहीं डाला जा सकता।
यह स्थिति एक बड़ी न्यायिक विडंबना को जन्म देती है: एक राज्य को ऐसे निर्णय का पालन करने को कहा जा रहा है, जो न केवल प्रक्रिया की दृष्टि से त्रुटिपूर्ण है, बल्कि विधिक रूप से भी टिकाऊ नहीं है। यह न केवल पंजाब के संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन है, बल्कि संघीय ढांचे के मूल सिद्धांतों के विरुद्ध भी है।
पंजाब की यह शिकायत कि तथ्यों को दबाकर, राज्य को अनुचित रूप से बाध्य किया गया, पूरी तरह से विचारणीय है। बी.बी.एम.बी., हरियाणा और केंद्र सरकार को अब न्यायालय के समक्ष पूरी पारदर्शिता और ज़िम्मेदारी के साथ अपना पक्ष रखना होगा।
जल-विवादों को केवल तकनीकी मसलों के रूप में नहीं देखा जा सकता। वे राज्यों के आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन से गहराई से जुड़े होते हैं। पंजाब, एक कृषि प्रधान राज्य होने के नाते, जल के मामले में किसी भी अन्याय या भेदभाव को सहन नहीं कर सकता।
यह अत्यंत आवश्यक है कि न्यायालय इस मामले की गहराई से समीक्षा करे और सुनिश्चित करे कि कोई भी आदेश अधूरी जानकारी या अधिकारविहीन संस्थाओं के कथनों के आधार पर न लिया जाए।
पंजाब की आवाज़, उसके अधिकार और उसके किसानों का भविष्य — ये सभी इस मामले से जुड़े हुए हैं। न्यायालय को यह ध्यान में रखना होगा कि न्याय सिर्फ प्रक्रिया नहीं, बल्कि उद्देश्यपूर्ण निर्णय का भी नाम है।